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कविता - मन बावरे


 सुख की खोज में दर दर भटके मन बावरे।

थोड़ी सी मुस्कान के लिए पार हो गए दायरे।

न कभी चाहत मिटती, न कभी जीभ थम जाती।

न ही कोई सेवा की भावना, जो गलती दब जाती।

विश्वास किस किस पर करे न ही कोई समझ पाती।

जिस पर यकीन करें वहीं सांप जैसा फन फैलाती ।

आता नहीं समझ क्या करें सांवरे।

दे दे कोई सबूत नियत का भटके न मन बावरे।

राहत की सांस अब कहां लेना चाहती।

जहां भी जाएं ठोकर ही खाती।

चुन चुन फूल ले उड़ाती।

जब होश आए तो समय बीत जाती।

अब हार गए तन सांवरे।

फिर भी रुख (पेड़) न  बदले मन बावरे।

सुख की खोज में दर दर भटके मन बावरे।

अब हम थक चुके आकर सहारा दे सांवरे।


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