कविता - इंसाफ
नई सोच की बढ़ती प्रगति में बुजुर्गो का मान करें
आओ आज इंसाफ करें।
घर - घर में मारा - मारी ।
खुलेआम ज़ुल्म खींची जा रही द्रोपदी की साड़ी।
कितने ज्ञानी महादानी देख रहे
फिर भी कहा रहे सदाचारी।
सच कभी छिपता नहीं,
फिर भी पैसे से मुंह बंद करा रहे ये अनाड़ी।
मान - सम्मान से खेल रहे ।
चुपकी से सब देख रहे।
आंख वाला भी अंधा हो जाता ।
जब सही बोलने का मौका आता।
ज़ुल्म करके अपराधी खुशी से घूम रहे।
मजबुर इंसान अपनी हालत को कोच ,
चुल्लू भर पानी में डूब रहे।
आज सही इंसाफ को जगाना है।
मुजरिमों को सजा दिलाना है।
बन जाए एक मिसाल ।
अब न हो अत्याचार।
खाके कसम आगे बढ़ना है।
इंसाफ के लिए अब किसी से नहीं डरना है।
निर्बल को बल दिलाएंगे।
बेसहारा को लाठी पकड़ाएंगे।
इंसानों की बस्ती इंसानियत का पाठ पढ़ाएंगे।
अपने हक के लिए कैसे लड़े,
ये सबको सिखाएंगे।
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