कविता - एक आजादी इश्क की किए गुनाह
एक आजादी इश्क की किए गुनाह।
नफरत के जोश में अनसुने रहे गुमराह।
चाहत की कसौटी में डगमगाते रहे राह।
मिल ना पाए झलक खुशी की,
बताते रहे मन की चाह।
एक आजादी इश्क किए गुनाह।
नफरत के जोश में अनसुने रहे गुमराह।
लगन ऐसी थी इश्क की,
चढ़े तो ना उतरे।
मन जिसे अपना माना
वे जबान के खरे न उतरे।
कुदरत की करिश्मा ऐसी रही की,
इश्क चाह के भी न टूटे।
आजादी के इस बे किस्मत इश्क कब पीछा छूटे ।
सच्चाई के इस मुल्क में दिखाई ना दे रही सही राह ।
एक आजादी इश्क की किए गुनाह।
भटकते दरिया में अजनबी दिखाई दिए।
दुनिया की नजरों में क्रेजी दिखाई दिए।
अनजाने हो हो गए हम,
संकोची फूलों की प्रवाह।
एक आजादी इश्क की के गुनाह।
नफरत के जोश में अनसुने रहे गुमराह।